बद्रीनाथ धाम की मूर्ति से जुड़ी वो रहस्यमयी बातें जिनके बारे में नही जानते होंगे आप, सिर्फ इन्हें है मूर्ति छूने का अधिकार, जानिए सबकुछ

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बद्रीनाथ धाम में भगवान नारायण योग मुद्रा में विराजमान हैं और इस धाम को भू-वैकुंठ भी कहते हैं। मान्यता है कि नारायण की पूजा छह माह मानव और छह माह देवताओं की ओर से उनके प्रतिनिधि के तौर पर नारदजी करते हैं।

देव पूजा शीतकाल में यहां के कपाट बंद होने के बाद होती है।

केवल इनको है मूर्ति छूने का अधिकार

शीतकाल के दौरान भगवान नारायण की पूजा मानव पांडुकेश्वर और ज्योतिर्मठ के नृसिंह मंदिर में ही कर सकते हैं। बद्रीनाथ मंदिर में भगवान नारायण की स्वयंभू मूर्ति है और भगवान योग मुद्रा में विराजमान हैं। बदरीनाथ की पूजा को लेकर दक्षिण भारत के केरल के पुजारी ही पूजा करते हैं, जिन्हें रावल कहते हैं। मूर्ति को छूने का अधिकार भी सिर्फ मुख्य पुजारी को ही है।

108 दिव्य मंदिरों में से एक है बद्रीनाथ धाम

बद्रीनाथ मंदिर के गर्भगृह में श्री विष्णु के साथ नर नारायण की ध्यानावस्था में मूर्ति है। शालिग्राम पत्थर से बनी मूर्ति एक मीटर ऊंची है। मान्यता है कि इस मूर्ति को आदि शंकराचार्य ने 8वीं सदी के आसपास नारद कुंड से निकालकर मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित किया। इसे भगवान श्रीविष्णु की आठ स्वयंभू प्रतिमाओं में से एक माना जाता है। यह मंदिर श्री विष्णु के 108 दिव्य मंदिरों में से एक है। गढ़वाल हिमालय में 1803 में भूकंप आया था। इससे मंदिर को काफी नुकसान पहुंचा था। इसके बाद जयपुर के धर्मपरायण राजा ने इस मंदिर का पुनरुद्धार किया था।

रावलों को मिला है पूजा का अधिकार

बद्रीनाथ और केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी केरल के नंबूदरी ब्राह्मण होते हैं, इनको रावल कहा जाता है और यह आदि शंकराचार्य के वंशज हैं। केरल के नंबूदरी ब्राह्मण से पूजा करने की यह व्यवस्था आदि शंकराचार्य ने स्वयं बनाई थी। इसलिए पूजा का अधिकार भी उन्हीं के कुल को यानी रावलों का मिला है। अगर वह किसी कारण मंदिर में नहीं होते हैं तो डिमरी ब्राह्मण यह पूजा करते हैं। बद्रीनाथ धाम में रावलों को भगवान के रूप में पूजा जाता है। उनको देवी पार्वती का स्वरूप भी मानते हैं। मान्यता है कि जिस दिन मंदिरों के कपाट खुलते हैं, उस दिन माता पार्वती की तरह श्रृंगार करते हैं लेकिन उस अनुष्ठान को हर कोई नहीं देख सकता।

पांच मंदिरों के समूह को कहा गया पंच बद्री

बद्रीनाथ धाम को अलग-अलग काल में अलग-अलग नाम से जाना गया है। स्कंद पुराण में वर्णन मिलता है कि बद्री क्षेत्र को मुक्तिप्रदा कहा गया है। त्रेता युग में इस जगह को योग सिद्ध कहा गया। द्वापर युग में भगवान नारायण ने इस जगह स्वयं दर्शन दिए थे, जिसके कारण इसे मणिभद्र आश्रम या विशाल तीर्थ कहा गया। वहीं कलियुग में बद्रिकाश्रम अथवा बद्रीनाथ धाम कहा जाता है। इस मंदिर को वदरी विशाल के नाम से भी पुकारते हैं। मंदिर के पास स्थित अन्य चार मंदिरों योग ध्यान बदरी, भविष्य बद्री, वृद्ध बद्री और आदि बद्री के नाम से पुकारते हैं। इन मंदिरों के समूह को पंच बद्री के रूप में जाना जाता है।

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